रिश्तों से क्या चाहते हैं हम? क्यों आती हैं कड़वाहटें? क्या इस अंतर्द्वंद्ध के निवारण का प्रयास सत्य के दर्शन में सहायक हो सकता है?
रिश्तों से क्या चाहते हैं हम? क्यों आती हैं कड़वाहटें?
किसी नये व्यक्ति से मिलते हैं तो पहले बाहरी आवरण ढका रहता है बेदाग़ और निष्कलंक चादरों से, अप्राकृतिक ख़ुश्बूओं से। जो भी चरित्र का हिस्सा साफ़ नज़रों में नहीं आ रहा होता, लेकिन हमारा मन अपनी अद्भुत कल्पना शक्ति से सभी रिक्त स्थान भर देता है।
सभी कुछ सुंदर प्रतीत होता है। मन में एक प्रतिमा का निर्माण हो जाता है जो हर तरीक़े से मन माफ़िक़ होती है। मन बड़ा निपुण होता है ख़ुद के सुख को खोजने और उसके काल्पनिक किंतु सत्य प्रतीत होने वाले प्रतिबिंब के निर्माण में।
परत दर परत खुलती जाती हैं। कुछ परतें अच्छी लगती हैं, जैसी सोची थी वैसी ही, और कुछ नहीं। उन अपरिचित अनचाही परतों से साक्षात्कार विचलित करता है, लेकिन उसे एक असामान्य भ्रम मान कर हम आगे बढ़ते हैं और उस परत को भविष्य में निकाल देने का संकल्प भी करते हैं, और कोशिश में भी लग जाते हैं।
यथार्थ कुछ अलग होता है। वह परत वह व्यक्ति है। उसका प्राकृतिक व्यक्तित्व है। कितनी भी चाहना करने पर भी दूसरा व्यक्ति उस परत को बदल नहीं सकता और हटा भी नहीं सकता।
तो लड़ाई व्यक्तित्व या व्यक्ति को बदलने को हो जाती है। उसी पुराने शरीर में हमें नया इंसान चाहिए होता है।
इसी प्रकार समय की सीधी पर चढ़ते हुए रिश्ते पुराने होते जाते हैं। कुछ रिश्ते समय के साथ गहरे होते जाते हैं, कुछ चौड़े, और कुछ दोनों। इस पर निर्भर करता है कि हम किसी अपरिचित अनचाही परत को देख कर रुक गये और व्यक्तित्व के शारीरिक आवरण पर दूसरी परतें देखने-पहचानने में लग गये या उसे अपना कर आगे बढ़ गये।
दो व्यक्तित्वों को आपस में मिल जाना होता है पूर्ण समागम के लिए। या तो एक दूसरे को अपने में मिला ले या दूसरा पहले को या दोनों एक दूसरे को पूर्णतया अपने में मिला लें। किसी एक व्यक्ति को पूर्णतया ऐसा होना होता है जो परतों से परे दूसरे व्यक्ति के अंदर जलती उस लौ के दर्शन कर सके और जाने की वही जीवन-ज्योति उसके अंदर भी वैसी ही जल रही है। उस ज्योति से प्रेम करे, क्योंकि उस ज्योति और इस ज्योति में कोई अंतर नहीं होता है।
ख़ुद के लिए एक परिचित मनभाविक परतों को दूसरे में ढूँढने रहने में हम ख़ुद को बंद कर देते हैं – एक कटघरे में – जिस में दूसरे के प्रवेश की कोई जगह नहीं बचती। यदि दोनों व्यक्ति परतों में उलझे रहेंगे ख़ुद को बंद कर के तो पूरा जीवन बस टटोलने में व्यतीत हो जाएगा।प्रेम नहीं हो पाएगा।
प्रेम के लिये खुलना होगा,
अपनाना होगा दूसरे को।
अपने अंदर की प्रेम ज्योति को उस के पास लाना होगा,
जिस से उसकी रोशनी, ऊर्जा, और गर्मी के सुख को जान सके।
उस गर्मी से ही पिघलना शुरू होगा, अच्छी-बुरी कठोर सभी प्रकार की परतों का।
सारी परतें और दीवारें ढह जायेंगी, और रह जाएगी सिर्फ़ वो लौ, वो ज्योति, वो लौ,
और दोनों कुछ ही समय में एक ही लौ हो जायेंगी,
उस ऊर्जा में नहा कर,
प्रकाशमान करेंगी चारों दिशाओं को.
उस प्रेम प्रकाश और उसकी गर्मी में
प्रेम बस गहरा ही हो सकता है,
और समय तो रुक ही जाता है।
लेकिन,
हम प्रेम को कहाँ अवसर देते हैं, आसानी से,
वरना,
वह तो हमें समेटे हुए ही हैं।
रुकावट हमारी और से ही तो है।